बुधवार, 15 सितंबर 2010
Hindi diwas aur sarkari aayojan
कल हिंदी दिवस था और शायद इसे बताने कि ज़रूरत भी नहीं हैं | हमारे कार्यालय में भी एक सरकारी आयोजन का होना अनिवार्य था आखिर मंत्रालय और मुख्यालय के आदेश का पालन जो करना हैं | प्रति वर्ष हम इसका आयोजन पूरी सरकारी निष्ठां के साथ करते हैं | बड़े अधिकारियो का उबाऊ भाषण और इस में चार चाँद लगाते झूठे आंकड़े और कर्मचारियों का आडम्बरपूर्ण प्रतिज्ञा के वे पूरे मनोयोग से हिंदी में कार्य करते रहेंगे | चूंकि मैं हिंदीजीवी हूँ इसलिए कार्यालय में इसके आयोजन की ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती हैं | इस बार मैंने सोचा क्यों ना कुछ लीक से हटकर किया जाए? भाषण तो ऐसे भी सरकारी कार्यालयों में बार-बार होने वाली बेहद उबाऊ और बोझिल संस्कार हैं जिसे सुनना कर्मचारियों कि नियति हैं | इसलिए इस बार मैंने इसके स्थान पर एक संगोष्टी/ परिचर्चा का आयोजन करने की सोची | अपने एक मित्र हैं एक दैनिक समाचार-पत्र में श्री हेमधर शर्मा जो एक प्रतिभाशाली और विचारवान कवि भी हैं, को फटाफट कॉल लगाया और उनसे दो और पत्रकारो को निमंत्रण के लिए अनुरोध किया| संगोष्टी के विषय का चयन भी मैंने ही किया था " हिंदी ही क्यों !" याद रखिये मैंने विषय के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगाया हैं बल्कि विस्मयबोधक चिन्ह लगाया हैं | दो और वक्ता जो कवि भी हैं और पत्रकार भी | एक थे श्री पुष्पेन्द्र ' फाल्गुन ' जो एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका "फाल्गुन विश्व" के संपादक हैं और दुसरे श्री उमेश यादव ये भी एक एक हिंदी दैनिक से जुड़े हैं और ये भी संयोग ही था कि इन तीनो को मैंने हाल ही में लोहिया जन्मशताब्दी समारोह के दौरान एक कवि सम्मेलन में सुना था और सच ये था कि मैं इन से बहुत प्रभावित हुआ था | यहाँ पर कुछ नया करने के चक्कर में मैंने एक भूल कर दी | मैं भूल गया था कि एक सरकारी कार्यालय में सरकारी लोगो के बीच creativity मायने नहीं रखती | वे कुछ नवीन और विचारशील क्रिया में विश्वास नहीं रखते | उनका सारा समय घडी की तरफ देखने में काटने वाला था | तो परिणाम वही हुआ जो सरकारी प्रयासों ने हिंदी के साथ किया हैं | एक नितांत विचारशील प्रक्रिया को सरकारी खानापूर्ति में बदल डाला | कल ही एक दूसरी घटना भी मेरे साथ घटी | मेरे एक सहकर्मी हैं जिनका नाम यहाँ लेना इसके प्रयोजन के लिए महत्वहीन हैं, उनके और मेरे जिम्मे सूचना का अधिकार अधिनियम के पालन की ज़िम्मेदारी हैं जो हमारे बहुत से जिम्मेदारियों में से एक हैं | चूंकि इस अधिनियम के अंतर्गत जो नियम बनाये गए हैं उसमे सूचना अधिकारी द्वारा दिए जाने वाले जवाब का मसौदा नहीं हैं इसलिए अधिकतर कार्यालयों ने और अधिकारियो ने अलग-अलग मसौदे अपनाये हैं | इस सम्बन्ध में हमारी चर्चा हमारे सूचना अधिकारी से हो रही थी कि हमें किस मसौदे में जवाब देना चाहिए? मेरा मत था कि पत्र के स्वरुप में ही होना चाहिए लेकिन मेरे सहकर्मी का मत था कि पत्र के स्वरुप में लिखेंगे तो किसी भी ऐरे-गैरे को sir कहना पड़ेगा जो मेरी दृष्टि में उचित नहीं हैं और उस पर उन्होंने सूचना अधिकारी को मक्खन लगते हुए ये भी जोड़ दिया कि सर आपके स्तर का अधिकारी किसी भी अल्लू-लल्लू को सर कहे ये अच्छा नहीं लगेगा आप सोच रहे होंगे कि मैंने इस प्रसंग को हिंदी दिवस के कार्यक्रम के साथ क्यों जोड़ा ? दरअसल मेरे सहकर्मी के विचार सिर्फ उस व्यक्ति या उस प्रसंग के सम्बन्ध में ही विचार नहीं थे ये विचार बहुसंख्यक सरकारी भारतीयों के विचारो का प्रतिनिधित्व करते हैं | यह सरकारी मानसिकता और व्यवहार उस औपनवेशिक मानसिकता को इंगित करता हैं जिसके कुठाराघात से हिंदी भारत कि राजभाषा के रूप में लहूलुहान हैं | सरकारी लोग आज भी उस औपनवेशिक मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं जो एक भारतीय को पशु या कीड़े-मकौड़े से ज्यादा कुछ नहीं समझता हैं | वे आज भी ये नहीं समझ पाए हैं कि स्वतन्त्र होने के बाद् हमने एक लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था चुनी हैं जिसमे एक आम आदमी भी शक्ति रखता हैं और उसका भी अपना सम्मान और dignity हैं जो अधिकार उसे इस देश का संविधान प्रदान करता हैं कोई सरकारी संगठन या अधिकारी नहीं | इसलिए इस देश में कोई आदमी भी अल्लू-खल्लू नहीं हो सकता | औपनवेशिक मानसिकता सरकारी व्यक्ति के अन्दर अभिजात्य होने का भ्रम पैदा करती हैं वो भ्रम जो उसे इस देश कि बहुसंख्यक जनता से अलग कर देता हैं जो स्वयं को पब्लिक servant न समझकर स्वयं को ruler और आम जनता को ruled समझता हैं | हिंदी भी इसी सरकारी मानसिकता का शिकार हो गयी हैं | एक आम भारतीय के या एक तथा-कथित अल्लू-खल्लू के द्वारा व्यवहार में लाये जाने वाली भाषा में वो अपना कामकाज कैसे कर सकते हैं | यदि उन्होंने हिंदी में कोई पत्र या नोट लिख दिया तो उनके और उस अल्लू-खल्लू के बीच में अंतर क्या रह जायेगा | उनका अभिजत्यापन कहाँ जायेगा ? बंधुओ यही बीमारी हैं और हमें इसी मानसिकता के विरुद्ध ही संघर्ष करना होगा | ये आम आदमी के बोलने और लिखने वाली भाषा ही इस देश की तकदीर हैं उसका भाग्य भी | और यही भाषा इस देश को विकास के पथ में ले जाएगी | क्योंकि इसकी शक्ति किसी सरकारी आदेश के ज़रिये से नहीं आती ये तो इस देश के करोड़े लोगो से आती हैं | जिस आम आदमी की शक्ति ने अपने समय के सर्वशक्तिमान साम्राज्य को पस्त कर दिया तो वो इन भारतीय अंग्रेजो को भी मिटा देगी | अंत में भारत के उस आम अल्लू-खल्लू को जिसके संघर्ष ने हमें यहाँ तक पहुँचाया हैं कोटि-कोटि प्रणाम |
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