शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

ज़िंदगी अपने तलाश में निकाल पड़ी हैं, नहीं मालूम मंज़िल क्या हैं पर हाँ रास्ता मज़ेदार ज़रूर हैं, सायादार पेड़ रास्ते पे पड़े न पड़े लेकिन हमसफर तो मिलते ही रहेंगे। अपना ख़्याल रखिए बहुत जल्दी फिर मुलाकात होगी।
                                                                @ नफीस

सोमवार, 24 सितंबर 2018


तुम अकेले क्यों सहती हो 

उदास रास्तों पर खामोशी से
तुम्हें चुप-चाप जब भी जाते देखा हैं
सब कुछ अकेले सहते देखा हैं
तब भी जब पिताजी डांटा करते थे
और अब भी जब जीजाजी डांटा करते हैं
तब भी जब हम भाई तुम्हें सुनाया करते थे
अब भी जब कि तुम्हारे बच्चे सुनाते हैं
तुम चुप-चाप सुन लेती हो इतना कुछ
ऑफिस में जब कभी बॉस सुनाते हैं
या घर आकर पत्नी सुनाती हैं
फट पड़ता हूँ मैं
नहीं देखता फिर पत्नी हो या बच्चे हो
पर तुमको देखा हैं मैंने चुप-चाप सुनते हुए
अकेले सब सहते हुए
दीदी कभी तो तुम भी फट पड़ो
हम सब पर गुस्सा निकालो
यूँ ही अंदर-अंदर दबे जाना
हम सब पुरुषों को भगवान बना देता हैं
तुम्हारा मौन रहना
सच पुछो तो  हमारा मर जाना हैं
एक बार तो दीदी प्रतिरोध करो
एक बार तो दीदी उद्घोष करो।
 
  # नफीस आलम
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 











 

शनिवार, 22 सितंबर 2018

घर-वापसी

धारणाएं तब ही तक अच्छी होती हैं जब वो टूटती हैं। धारणाओं का स्थायी बना रहना ख़तरनाक होता हैं। मेरी ख़ुद अपने बारे में पहले धारणा ये थी कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। फिर बहुत जल्दी वो धारणा टूट गई। फिर मैं जान गया कि मैं औसत लिखता हूँ। मैंने लिखना कम कर दिया। अब मैं लिखता हूँ लेकिन इस सच को मानते हुए कि मुझे बहुत अच्छा लिखना नही आता। मैं फेसबुक की तरफ आकर्षित हुआ तो मेरे अंदर एक उधारणा  बनने लगी कि यह बड़ी दुनिया हैं ज़्यादा लोगों से संपर्क बनता हैं, ज़्यादा लोग आपको पढ़ते हैं और ज़्यादा लोगों को आप पढ़ सकते हैं। कुछ दिन सच में ऐसा हुआ भी। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के बड़े लोगों से संपर्क भी हुआ। कुछ अच्छे कवियों और लेखकों को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। लेकिन एक बात और हुई। मैं भी लाइक और कमेंट के चक्कर में आ गया। फेसबुक में फोटो पोस्ट करने पर सैकड़ों लाइक मिलते और कुछ पढ़ने योग्य लिखने पर दहाई भी पार होना मुश्किल हो जाता है। और गंभीर मुद्दों पर बात करने का स्कोप बहुत सीमित दिखा। इसलिए वापस अपने ब्लॉग पर लौट आया हूँ। आप कहते सकते हैं ठुकराए जाने के बाद आया हूँ।
तो किसी शायर ने कहा हैं और जगजीत ने अपनी मख़मली आवाज़ में उसे गुनगुनाया ...

ठुकराओ या मुझको प्यार करो मैं नशे में हूँ....इतना तो मेरे यार करो, मैं नशे में हूँ....।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

        द्वंद
एक द्वंद
अंदर भी, बाहर भी
अंदर न होने का
बाहर होने का
दोनो में भ्रम ही भ्रम
© नफीस आलम