एक उदास शाम में, मौन-मूक दृष्टी से टीवी में,
देख रही थी पति के बाजू में, वो एक कार्यक्रम डिस्कवरी में |
अंतर्द्वंद से घिरे मस्तिष्क में, लाखो सवालों के कौंधने के बीच में,
हिंसा, बलात्कार और पीड़ा के समुद्र में,
दिन-भर की व्यस्तताओं से lade,
aate -जाते ख्यालो के बीच में,
आ रहा था आफ्रीकी आदिवासी " बांटू" पर कार्यक्रम एक,
" ये आदिवासी भी कैसे नग्न होते हैं, कैसे असभ्य?"
इतना ही कहा था उसके पति ने,
और फट पड़ी थी वो गुस्से में,
वर्षो से सुप्त ज्वालामुखी थी, आज पुनः जाग गयी थी,
और उसके मुख से निकल पड़ा था, आज लावा असंतोष का,
कौन सभ्य हैं और कौन असभ्य,
वो जिन्होंने किया था प्रयास,
द्रौपदी को निवस्त्र करने भरी सभा में
और वो जिन्होंने उसे होते देखा था,
या वो भेड़िया नेता सभ्य हैं जिसने लूटकर इज्ज़त भी,
उस बांदा की अबोध को डलवाया जेल में,
या वो जो रोज़ उसके देह को,
कामुक नज़रो से बेधते हैं, सभ्य हैं?
और तुम जो हिंसा को हथियार बनाकर,
अपनी अर्धांगनी पर, चलते हो अपना शासन, सभ्य हो?
सुनो दे दो mere प्रश्नों का उत्तर,
क्या कभी सुना उन आदिवासियों में,
किसी ने स्त्री की लूटी हैं अस्मत, नहीं इन नग्न लोगो में,
स्त्री उपभोग का विषय नहीं हैं, स्त्री मॉडल नहीं हैं,
स्त्री पीड़ित नहीं हैं, क्या ये इसलिए असभ्य हैं?
क्यों चुप हो तुम? तुम भी तो सभ्य हो,
क्या विडम्बना हैं देखो?
वे जो सभ्य होकर भी असभ्य कहलाते हैं,
और तुम जो असभ्य होकर भी सभ्य कहलाते हो?
नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति नागपुर द्वारा आयोजित काव्य-पाठ प्रतियोगिता २०११ में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित कविता| कृपया अपने विचारो से अवगत कराये| धन्यवाद |