मेरी अभिव्यक्ति
समाज की बौद्धिक चिंतन का आईना
सोमवार, 2 मार्च 2009
रिश्तों में जब सिलवटे पड़ जाती है
तो वो भी कपड़ो की तरह जिस्म से उतर जाते हैं
यादों की कतरनों से रिश्तों की चादर बुनते हैं,
और फिर उनसे रिश्तों की गर्माहट की उम्मीद करते हैं,
लोग तो दो लेकिन न जाने,
कितनी जिंदगियां जीते हैं,
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें