सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

                                             आत्मलोचना

कभी-कभी ख़ुद के बारे में सोचकर हंसी आ जाती हैं। ऐसे मूरख हैं हम! लेकिन अगले ही पल सब कुछ ठीक हो जाता हैं और हम फिर निकल पढ़ते हैं वहीं गलतियाँ करने के लिए जिस पर अभी कुछ देर पहले ही हम धीर-गंभीर होकर विमर्श कर रहें थे। अब हमारे पास एक डॉकट्रीन हैं - इंसान तो ग़लतियों को पुतला हैं। उसके स्वभाव में ही ग़लती करना हैं। सचमुच आत्मलोचना जितना कठिन शब्द हैं यथार्थ में भी उतना ही दुरूह कार्य हैं। कहने में ये बड़ा ही आसान हैं कि अपनी पिछली ग़लतियों से सबक़ लेना चाहिए लेकिन क्या पिछली ग़लतियाँ एक जैसी थी, उसकी प्रकृति भी समान थी। नहीं। कोई भी दो ग़लतियाँ एक जैसी नहीं होती। आत्मलोचना के लिए मन का शांत होना पहली शर्त हैं। और यही सबसे कठिन समय होता हैं। ग़लती होने के बाद मन जल्दी शांत नहीं होता। और जब मन शांत होता हैं तो कई बार आत्मलोचना के लिए स्फूर्ति खत्म हो जाती हैं। शांत मन के बाद दूसरी शर्त हैं ख़ुद को डिफ़ेंड करने के हमारे स्वभाव पर काबू पाना। यहाँ भी मुश्किलें ही मुश्किलें हैं। हमें दूसरों की ग़लतियाँ बहुत जल्दी दिख जाती हैं और अपनी ग़लतियों को ढूँढने के लिए हमें माइक्रोस्कोप की ज़रूरत होती हैं। अब आते हैं तीसरी शर्त पर। क्या ये ज़रूरी हैं कि सारी ग़लतियाँ हमसे ही हो और दूसरों से कुछ भी नहीं। क्या आत्मलोचना वैक्युम में संभव हैं। उत्तर आपका ही शायद हाँ में ही होगा। आत्मलोचना के लिए एक ऐसे एनवायरनमेंट की आवश्यकता हैं जिसमें सभी व्यक्ति इस प्रक्रिया से गुज़रे। और यही पर सबसे बड़ी मुश्किल का सामना हैं। अधिकतर ऐसे हैं जिनके पास आत्मलोचना के लिए न समय हैं और न सोच। तो फिर आत्मलोचना एकपक्षीय नहीं हो सकता न। लेकिन क्या हम ये कहकर कि दूसरे नहीं कर रहें इसलिए हम भी नहीं करेंगे, चुप हो जाएँ। ये भी उतना ही ग़लत हैं। आत्मलोचना निरपेक्ष नहीं हो सकता। इसलिए हमें आत्मलोचना को परिस्थिति, व्यक्तियों और समूहो और सामर्थ्य के सापेक्ष ही  आत्मलोचना की क्रिया को देखना होगा। आत्मलोचना की प्रक्रिया के उपरांत एक अहम हिस्सा उस मानसिक स्थिति को नियंत्रण करना भी हैं जब हम अपने प्रतिक्रिया देने की गति को काबू में कर लेते हैं। तब कहीं जाकर आत्मलोचना की प्रक्रिया अपने महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंचता हैं। लेकिन इस प्रक्रिया का अंत यही नहीं होता। बल्कि इसके बाद हमारे मानसिक और स्वाभाविक स्थिति में परिवर्तन आता हैं। अब सबसे आवश्यक हैं हमारा सजग होना। सजगता केवल ग़लती से बचने की नहीं बल्कि स्थिति की गहनता को समझते हुये अगले स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने के लिए।
तो साहब इतनी कठिन क्रिया के लिए कितने साधारण तरीके से हमें कह दिया जाता हैं आत्मलोचना के लिए। थोड़ा तो रहम कर दो भाई।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

ज़िंदगी अपने तलाश में निकाल पड़ी हैं, नहीं मालूम मंज़िल क्या हैं पर हाँ रास्ता मज़ेदार ज़रूर हैं, सायादार पेड़ रास्ते पे पड़े न पड़े लेकिन हमसफर तो मिलते ही रहेंगे। अपना ख़्याल रखिए बहुत जल्दी फिर मुलाकात होगी।
                                                                @ नफीस

सोमवार, 24 सितंबर 2018


तुम अकेले क्यों सहती हो 

उदास रास्तों पर खामोशी से
तुम्हें चुप-चाप जब भी जाते देखा हैं
सब कुछ अकेले सहते देखा हैं
तब भी जब पिताजी डांटा करते थे
और अब भी जब जीजाजी डांटा करते हैं
तब भी जब हम भाई तुम्हें सुनाया करते थे
अब भी जब कि तुम्हारे बच्चे सुनाते हैं
तुम चुप-चाप सुन लेती हो इतना कुछ
ऑफिस में जब कभी बॉस सुनाते हैं
या घर आकर पत्नी सुनाती हैं
फट पड़ता हूँ मैं
नहीं देखता फिर पत्नी हो या बच्चे हो
पर तुमको देखा हैं मैंने चुप-चाप सुनते हुए
अकेले सब सहते हुए
दीदी कभी तो तुम भी फट पड़ो
हम सब पर गुस्सा निकालो
यूँ ही अंदर-अंदर दबे जाना
हम सब पुरुषों को भगवान बना देता हैं
तुम्हारा मौन रहना
सच पुछो तो  हमारा मर जाना हैं
एक बार तो दीदी प्रतिरोध करो
एक बार तो दीदी उद्घोष करो।
 
  # नफीस आलम
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 











 

शनिवार, 22 सितंबर 2018

घर-वापसी

धारणाएं तब ही तक अच्छी होती हैं जब वो टूटती हैं। धारणाओं का स्थायी बना रहना ख़तरनाक होता हैं। मेरी ख़ुद अपने बारे में पहले धारणा ये थी कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। फिर बहुत जल्दी वो धारणा टूट गई। फिर मैं जान गया कि मैं औसत लिखता हूँ। मैंने लिखना कम कर दिया। अब मैं लिखता हूँ लेकिन इस सच को मानते हुए कि मुझे बहुत अच्छा लिखना नही आता। मैं फेसबुक की तरफ आकर्षित हुआ तो मेरे अंदर एक उधारणा  बनने लगी कि यह बड़ी दुनिया हैं ज़्यादा लोगों से संपर्क बनता हैं, ज़्यादा लोग आपको पढ़ते हैं और ज़्यादा लोगों को आप पढ़ सकते हैं। कुछ दिन सच में ऐसा हुआ भी। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के बड़े लोगों से संपर्क भी हुआ। कुछ अच्छे कवियों और लेखकों को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। लेकिन एक बात और हुई। मैं भी लाइक और कमेंट के चक्कर में आ गया। फेसबुक में फोटो पोस्ट करने पर सैकड़ों लाइक मिलते और कुछ पढ़ने योग्य लिखने पर दहाई भी पार होना मुश्किल हो जाता है। और गंभीर मुद्दों पर बात करने का स्कोप बहुत सीमित दिखा। इसलिए वापस अपने ब्लॉग पर लौट आया हूँ। आप कहते सकते हैं ठुकराए जाने के बाद आया हूँ।
तो किसी शायर ने कहा हैं और जगजीत ने अपनी मख़मली आवाज़ में उसे गुनगुनाया ...

ठुकराओ या मुझको प्यार करो मैं नशे में हूँ....इतना तो मेरे यार करो, मैं नशे में हूँ....।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

        द्वंद
एक द्वंद
अंदर भी, बाहर भी
अंदर न होने का
बाहर होने का
दोनो में भ्रम ही भ्रम
© नफीस आलम

सोमवार, 6 मार्च 2017


       आज़ादी 


हमने दी हैं आज़ादी चिड़िया को

नहीं कतरे हैं पंख उसके

उड़ने की पूरी आज़ादी हैं उसको

पिंजरे के अंदर

क्योंकि वो आसमान मे सुरक्षित नहीं हैं

उसके लिए आज़ादी इतनी हैं कि

वी फड़फड़ा सकती हैं अपने पंख

             : नफीस आलम


(गुरमेहर कौर को समर्पित) 

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

मशाल: सभ्यता को बचाने के लिए

उन साहित्यकारो वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, इतिहासकारों, लेखको, चिंतकों, मज़दूरों के नाम जिन्होने दरबारी होने और सत्ता के सामने सर ख़म करने से इंकार कर दिया

जब कभी उदासी छाती हैं
और शंका की घटाए घिर आती हैं
तुम मन मे विश्वास जगाते हो
कि अभी सब खत्म नही हुआ हैं
कि अभी भी सांस चल रही हैं
कि अभी भी कुछ लोग खड़े हैं 
हाथों मे मशाल लिए
कि अभी भी आस का दीपक बुझा नही हैं
कि अभी भी सब बिके नही हैं
कि अभी भी प्रतिरोध बाकी है
कि अभी भी इंसानियत पशुत्व पर हावी है
कि अब भी क्रांति का सूरज उगेगा 
और मै और तुम हाथ थामे चल सकेंगें
तिमिर से ज्योति की ओर।