शनिवार, 22 सितंबर 2018

घर-वापसी

धारणाएं तब ही तक अच्छी होती हैं जब वो टूटती हैं। धारणाओं का स्थायी बना रहना ख़तरनाक होता हैं। मेरी ख़ुद अपने बारे में पहले धारणा ये थी कि मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ। फिर बहुत जल्दी वो धारणा टूट गई। फिर मैं जान गया कि मैं औसत लिखता हूँ। मैंने लिखना कम कर दिया। अब मैं लिखता हूँ लेकिन इस सच को मानते हुए कि मुझे बहुत अच्छा लिखना नही आता। मैं फेसबुक की तरफ आकर्षित हुआ तो मेरे अंदर एक उधारणा  बनने लगी कि यह बड़ी दुनिया हैं ज़्यादा लोगों से संपर्क बनता हैं, ज़्यादा लोग आपको पढ़ते हैं और ज़्यादा लोगों को आप पढ़ सकते हैं। कुछ दिन सच में ऐसा हुआ भी। हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के बड़े लोगों से संपर्क भी हुआ। कुछ अच्छे कवियों और लेखकों को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। लेकिन एक बात और हुई। मैं भी लाइक और कमेंट के चक्कर में आ गया। फेसबुक में फोटो पोस्ट करने पर सैकड़ों लाइक मिलते और कुछ पढ़ने योग्य लिखने पर दहाई भी पार होना मुश्किल हो जाता है। और गंभीर मुद्दों पर बात करने का स्कोप बहुत सीमित दिखा। इसलिए वापस अपने ब्लॉग पर लौट आया हूँ। आप कहते सकते हैं ठुकराए जाने के बाद आया हूँ।
तो किसी शायर ने कहा हैं और जगजीत ने अपनी मख़मली आवाज़ में उसे गुनगुनाया ...

ठुकराओ या मुझको प्यार करो मैं नशे में हूँ....इतना तो मेरे यार करो, मैं नशे में हूँ....।

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